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ब्रह्म॑णस्पते॒ त्वम॒स्य य॒न्ता सू॒क्तस्य॑ बोधि॒ तन॑यं च जिन्व। विश्वं॒ तद्भ॒द्रं यदव॑न्ति दे॒वा बृ॒हद्व॑देम वि॒दथे॑ सु॒वीराः॑॥

अंग्रेज़ी लिप्यंतरण

brahmaṇas pate tvam asya yantā sūktasya bodhi tanayaṁ ca jinva | viśvaṁ tad bhadraṁ yad avanti devā bṛhad vadema vidathe suvīrāḥ ||

मन्त्र उच्चारण
पद पाठ

ब्रह्म॑णः। प॒ते॒। त्वम्। अ॒स्य। य॒न्ता। सु॒ऽउक्तस्य॑। बो॒धि॒। तन॑यम्। च॒। जि॒न्व॒। विश्व॑म्। तत्। भ॒द्रम्। यत्। अव॑न्ति। दे॒वाः। बृ॒हत्। व॒दे॒म॒। वि॒दथे॑। सु॒ऽवीराः॑॥

ऋग्वेद » मण्डल:2» सूक्त:24» मन्त्र:16 | अष्टक:2» अध्याय:7» वर्ग:3» मन्त्र:6 | मण्डल:2» अनुवाक:3» मन्त्र:16


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स्वामी दयानन्द सरस्वती

फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है।

पदार्थान्वयभाषाः - हे (ब्रह्मणः,पते) धन के पालक विद्वान् (त्वं) तू (अस्य) इस (सूक्तस्य) सूक्त अर्थात् अच्छे प्रकार कहे वाक्य के अर्थ को (बोधि) जान (तनयम्) औरस पुत्र वा विद्यार्थी जन को (जिन्व) सुखी कर (च) और राज्य का (यन्ता) नियमकर्त्ता हो जिससे (देवाः) विद्वान् लोग (यत्) जिस (विश्वम्) जगत् की (अवन्ति) रक्षा करते हैं (तत्) उसको (बृहत्) बड़ा (भद्रम्) कल्याणयुक्त (विदथे) जानने योग्य सङ्ग्रामादि व्यवहार में (सुवीराः) सुन्दर वीरोंवाले हम लोग (वदेम) उपदेश करें ॥१६॥
भावार्थभाषाः - सब मनुष्यों को उचित है कि सुन्दर नियम से वेद के अर्थों को जान पूर्ण युवावस्था में स्वयंवर विवाह कर धर्म से सन्तानों की उत्पत्ति और रक्षाकर यथावत् ब्रह्मचर्य के साथ सुन्दर शिक्षा दे और विद्वान् करके सुख बढ़ावें ॥१६॥ इस सूक्त में विद्वान् और ईश्वर के गुणों का वर्णन होने से इस सूक्त के अर्थ की पूर्व सूक्त के अर्थ के साथ सङ्गति है, यह जानो ॥ यह चौबीसवाँ सूक्त और तीसरा वर्ग समाप्त हुआ ॥
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स्वामी दयानन्द सरस्वती

पुनस्तमेव विषयमाह।

अन्वय:

हे ब्रह्मणस्पते त्वमस्य सूक्तस्यार्थं बोधि तनयं जिन्व राज्यस्य च यन्ता भव यतो देवा यद्विश्वमवन्ति तद्बृहद्भद्रं विदथे सुवीरा वयं वदेम ॥१६॥

पदार्थान्वयभाषाः - (ब्रह्मणः) (पते) धनस्य पालक (त्वम्) (अस्य) (यन्ता) नियन्ता (सूक्तस्य) सुष्ठूक्तस्यार्थम् (बोधि) जानीहि (तनयम्) औरसं विद्यार्थिनं वा (च) (जिन्व) सुखय (विश्वम्) जगत् (तत्) (भद्रम्) भन्दनीयं कल्याणयुक्तम् (यत्) (अवन्ति) रक्षन्ति (देवाः) विद्वांसः (बृहत्) महत् (वदेम) (विदथे) विज्ञातव्ये सङ्ग्रामादिव्यवहारे (सुवीराः) ॥१६॥
भावार्थभाषाः - सर्वैर्मनुष्यैः सुनियमेन वेदार्थान् विज्ञाय पूर्णयुवावस्थायां स्वयंवरं विवाहं विधाय धर्मेणापत्यान्युत्पाद्य संपाल्य यथावत् ब्रह्मचर्य्येण सुशिक्ष्य विदुषः कृत्वा सुखं वर्द्धनीयमिति ॥१६॥ अत्र विद्वदीश्वरगुणवर्णनादेतदर्थस्य पूर्वसूक्तार्थेन सह सङ्गतिरस्तीति बोध्यम् ॥ इति चतुर्विंशतितमं सूक्तं तृतीयो वर्गश्च समाप्तः ॥
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माता सविता जोशी

(यह अनुवाद स्वामी दयानन्द सरस्वती जी के आधार पर किया गया है।)
भावार्थभाषाः - सर्व माणसांनी वेदाचे अर्थ नियमपूर्वक जाणून पूर्ण युवावस्थेमध्ये स्वयंवर विवाह करून धर्माने संतानांची उत्पत्ती व रक्षण करून त्यांना यथायोग्य ब्रह्मचर्याचे चांगले शिक्षण द्यावे व विद्वान करून सुख वाढवावे. ॥ १६ ॥